शिवरात्रि आदि देव भगवान शिव और मां शक्ति के मिलन का महापर्व है। वैसे तो इस महापर्व के बारे में कई पौराणिक कथाएं मान्य हैं, परन्तु हिन्दू धर्म ग्रन्थ शिव पुराण की विद्येश्वर संहिता के अनुसार इसी पावन तिथि की महानिशा में भगवान भोलेनाथ का निराकार स्वरूप प्रतीक लिंग का पूजन सर्वप्रथम ब्रह्मा और भगवान विष्णु के द्वारा हुआ, जिस कारण यह तिथि शिवरात्रि के नाम से विख्यात हुई। महा शिवरात्रि पर भगवान शंकर का रूप जहां प्रलयकाल में संहारक है वहीं उनके प्रिय भक्तगणों के लिए कल्याणकारी और मनोवांछित फल प्रदायक भी है।
शिवलिंग |
महाशिवरात्रि व्रत में उपवास का बड़ा महत्व होता है। इस दिन शिव भक्त शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग का विधि पूर्वक पूजन करते हैं और रात्रि में जागरण करते हैं। भक्तगणों द्वारा लिंग पूजा में बेल-पत्र चढ़ाना, उपवास और रात्रि जागरण करना एक विशेष कर्म की ओर इशारा करता है।
पौराणिक मान्यता है कि इसी दिन भोलेनाथ की शादी मां शक्ति के संग हुई थी, जिस कारण भक्तों के द्वारा रात्रि के समय भगवान शिव की बारात निकाली जाती है। इस पावन दिवस पर शिवलिंग का विधि पूर्वक अभिषेक करने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है। महा शिवरात्रि के अवसर पर रात्रि जागरण करने वाले भक्तों को शिव नाम, ॐ नमः शिवाय, पंचाक्षर मंत्र अथवा शिव स्त्रोत का आश्रय लेकर अपने जागरण को सफल करना चाहिए।
शिव का यह रूप है वो सबसे अजीब है. शरीर पर श्मशान की भस्म है, उनके गले में सर्पो की माला, कंठ में विष,कानों में कुंडल,चंद्र मुकुट,माथे पर भसम का तिलक, हाथ में डमरू और त्रिशूल, जटाओ में पावन-गंगा और कमर पर शेर की खाल पहनते है |
शिवजी बैल नंदी को अपना वाहन मानते है जो की प्रत्येक शिव मंदिर के बहार आपको दिख जायेगा | शिव बैरागी रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते है और धन-सम्पत्ति प्रदान करते है.
" सुबह सुबह ले शिव का नाम , कर ले बन्धे यह शुभ काम" सुबह सुबह ले शिव का नाम शिव आएंगे तेरे काम " ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय !
महाशिवरात्रि हिन्दुओं के बड़े त्योहार और व्रतों में से एक माना गया है. मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था. प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं. इसीलिए इसे महाशिवरात्रि कहा गया है.
शिव पूजा का सबसे बड़ा और पावन दिन महाशिवरात्रि को माना गया है.देवों के देव महादेव शिवशंकर भोलेनाथ अपने भक्तों के मन की बात बहुत जल्दी सुनते हैं. मन से पूजन करो तो महादेव शिव बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं. इसलिए भक्तों में सबसे प्रिय भी हैं देव महादेव है |
इसके अलावा भारत के कई स्थानों पर यह भी माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था. वैसे तो हर महीने मासिक शिवरात्रि मनाई जाती है लेकिन फाल्गुन के महीने की शिवरात्रि को ही महाशिवरात्रि कहते हैं
महाशिवरात्रि की पवित्र, प्राचीन और प्रामणिक कथा जिसके कथन से , सुनने से सब कष्टो से मुक्ति मिलती है
पूर्व काल में चित्रभानु नामक एक शिकारी था। जंगली जानवरों का शिकार करके वह अपने परिवार का पालन पोषण करता था। वह एक साहूकार का कर्जदार था और उसका ऋण समय पर न चुका सका।
क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी।
शाम होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन दिया और साहूकार ने उसके इस बचन को पूरा करने के लिए छोड़ दिया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला पर दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख और प्यास से व्याकुल था। जंगल में शिकार खोजता हुआ वह बहुत दूर निकल आया था ।
जब अंधकार होने लगा और बापिस घर पहुंचना बहुत कठिन था तो उसने विचार किया कि रात जंगल में ही बितानी पड़ेगी। वह जंगल में एक तालाब के किनारे एक बेल के पेड़ पर चढ़ कर रात बीतने का इंतजार करने लगा।
बिल्व वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढंका हुआ था। शिकारी उस शिवलिंग को देख नहीं पाया । पेड़ पर रात बिताने के लिए पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरती चली गई। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बिल्वपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुंची।
शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, हिरणी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो गलत है , तुम्हे मेरे प्राण चाहिए तो ले लो परंतु इतना समय दे दो की मैं बच्चे को जन्म दे सकूँ और इसके पश्चात शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और हिरणी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई। प्रत्यंचा चढ़ाने तथा ढीली करने के वक्त कुछ बिल्व पत्र अनायास ही टूट कर शिवलिंग पर गिर गए। इस प्रकार उससे अनजाने में ही प्रथम प्रहर का पूजन भी सम्पन्न हो गया।
कुछ ही देर के बाद एक और हिरणी उधर से निकली। उसे देखने के पश्चात शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा और हिरनी के समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। हिरनी को जब आभास हुआ की अनजाने में मौत के समक्ष खड़ी हो गयी है तब उसे देख हिरणी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे शिकारी मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।'
शिकारी ने उसे भी जाने दिया और दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका और वह गहरी चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। इस बार भी धनुष से लग कर कुछ बेलपत्र शिवलिंग पर जा गिरे तथा दूसरे प्रहर की पूजन भी सम्पन्न हुआ ।
तभी एक अन्य हिरणी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। जब वह तीर छोड़ने ही वाला था कि हिरणी बोली,हे शिकारी!' मैं अपने बच्चो के साथ हूँ , मेरी हत्या के पश्चात यह भी जंगली जानवरो का शिकार बन जायेंगे, मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी यह बचन है मेरा इसलिए इस समय मुझे मत मारो।
शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं और मेरे बच्चे भूख-प्यास से व्यग्र हो रहे होंगे। उत्तर में हिरणी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। हे शिकारी! मेरा विश्वास करों, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।
हिरणी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में तथा भूख-प्यास से व्याकुल शिकारी अनजाने में ही बेल-वृक्ष पर बैठा बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था | सुबह होने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा।
शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे शिकारी! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुख न सहना पड़े। मैं उन हिरणियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।
मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।'
शिकारी ने उसे भी जाने दिया। इस प्रकार प्रात: हो आई ,उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से अनजाने में ही शिवरात्रि की पूजा पूर्ण हो गई और अनजाने में ही की हुई पूजन का परिणाम उसे तत्काल मिला। शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया। उसमें भगवद्शक्ति का वास हो गया।
थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके। किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसने मृग परिवार को जीवनदान दे दिया।
अनजाने में शिवरात्रि के व्रत का पालन करने पर भी शिकारी को मोक्ष की प्राप्ति हुई। जब मृत्यु काल में यमदूत उसके जीव को ले जाने आए तो शिवगणों ने उन्हें वापस भेज दिया तथा शिकारी को शिवलोक ले गए। शिव जी की कृपा से ही अपने इस जन्म में राजा चित्रभानु अपने पिछले जन्म को याद रख पाए तथा महाशिवरात्रि के महत्व को जान कर उसका अगले जन्म में भी पालन कर पाए।
शिकारी की कथानुसार महादेव तो अनजाने में किए गए व्रत का भी फल दे देते हैं पर वास्तव में महादेव शिकारी की दया भाव से प्रसन्न हुए। अपने परिवार के कष्ट का ध्यान होते हुए भी शिकारी ने मृग परिवार को जाने दिया। यह करुणा ही वस्तुत: उस शिकारी को उन पण्डित एवं पूजारियों से उत्कृष्ट बना देती है जो कि सिर्फ रात्रि जागरण, उपवास एव दूध, दही, एवं बेल-पत्र आदि द्वारा शिव को प्रसन्न कर लेना चाहते हैं।
इस कथा में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कथा में 'अनजाने में हुए पूजन' पर विशेष बल दिया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शिव किसी भी प्रकार से किए गए पूजन को स्वीकार कर लेते हैं अथवा भोलेनाथ जाने या अनजाने में हुए पूजन में भेद नहीं कर सकते हैं।
वास्तव में वह शिकारी शिव पूजन नहीं कर रहा था। इसका अर्थ यह भी हुआ कि वह किसी तरह के किसी फल की कामना भी नहीं कर रहा था। उसने मृग परिवार को समय एवं जीवन दान दिया जो कि शिव पूजन के समान है। शिव का अर्थ ही कल्याण होता है। उन निरीह प्राणियों का कल्याण करने के कारण ही वह शिव तत्व को जान पाया तथा उसका शिव से साक्षात्कार हुआ।
पुराणों में चार प्रकार के शिवरात्रि पूजन का वर्णन है। मासिक शिवरात्रि, प्रथम आदि शिवरात्रि, तथा महाशिवरात्रि और पुराण वर्णित अंतिम शिवरात्रि है-नित्य शिवरात्रि। वस्तुत: प्रत्येक रात्रि ही 'शिवरात्रि' है अगर हम उन परम कल्याणकारी आशुतोष भगवान में स्वयं को लीन कर दें तथा कल्याण मार्ग का अनुसरण करें, और यही शिवरात्रि का सच्चा व्रत है। शिव कर्मो से किये गए मानवता की पूजा से प्रसन्न होते है ! शिव है शक्ति , शिव है भक्ति, शिव है मुक्ति का धाम, हर करम में शिव शिव , हर कण कण में शिव शिव , शिव के हाथ है सब परिणाम |
शिव पुराण के अनुसार, महाशिवरात्रि पूजा में 6 वस्तुओ को शिवरात्रि की पूजा में शामिल करना चाहिए जिसके बारे में निचे लिखा है |
शिव लिंग का जल (पानी), शहद और दूध के साथ अभिषेक करे बेल या वेल के पत्ते जो आत्मा की शुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं और महादेव को प्रिय है |
अभिषेक के बाद शिवलिंग को चन्दन का लेप लगया जाता है| यह पुण्य का प्रतिनिधित्व करता है;
फल, यह दीर्घायु और इच्छाओं की संतुष्टि को दर्शाते हैं;
पिला वस्त्र , सफेद पुष्प, जलती धूप, उपज (अनाज);दीपक, यह ज्ञान की प्राप्ति के लिए बहुत ही अनुकूल है;
सांसारिक सुखों के लिए पान के पत्ते बहुत जरूरी है यह संतोष अंकन करते हैं;
जय जय शिव शम्बू | |
शिवलिंग पर गलती से भी न चढ़ाएं ये 5 चीजें
महादेव की पूजा करने के दौरान कुछ बातों का ध्यान रखे और खासतौर से अगर आप शिवलिंग की पूजा कर रहे हैं तो कुछ चीजों को भूलकर भी शिवलिंग पर न चढ़ाएं.
1. शंक से न चढ़ाएं जल: भगवान शिव ने शंखचूड़ नाम के असुर का वध किया था. शंख को उसी असुर का प्रतीक माना जाता है, जो भगवान विष्णु का भक्त था. इसलिए विष्णु भगवान की पूजा शंख से होती है, शिव की नहीं.
2.शिवलिंग पर न चढ़ाएं तुलसी का पत्ता: तुलसी को भगवान विष्णु ने पत्नी रूप में स्वीकार किया है. इसलिए तुलसी से शिव जी की पूजा नहीं होती.
3. सफेद तिल या सफेद तिल से बनी कोई वस्तु न चढ़ाएं: यह भगवान विष्णु के मैल से उत्पन्न हुआ मान जाता है, इसलिए इसे भगवान शिव को नहीं अर्पित किया जाना चाहिए.
4. चढ़ाएं ना टूटे हुए चावल: भगवान शिव को अक्षत यानी साबूत चावल अर्पित किए जाने के बारे में शास्त्रों में लिखा है. टूटा हुआ चावल अपूर्ण और अशुद्ध होता है, इसलिए यह शिव जी को नहीं चढ़ता.
5. शिव को नहीं भाता कुमकुम या सिंदूर : कुमकुम सौभाग्य का प्रतीक है, जबकि भगवान शिव वैरागी हैं, इसलिए शिव जी को कुमकुम नहीं चढ़ता.
शिवरात्रि पर मंत्र जाप करने से शिव बहुत प्रसन्न होते है | महादेव शिव की पूजा अर्चना के वैसे तो कई मंत्र है, जैसे ,
ॐ नमः शिवाय।
प्रौं ह्रीं ठः।
ऊर्ध्व भू फट्।
इं क्षं मं औं अं।
नमो नीलकण्ठाय।
ॐ पार्वतीपतये नमः।
ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय।
ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्त्तये मह्यं मेधा प्रयच्छ स्वाहा।
महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर 'ॐ नमः शिवायः' मंत्र से पूजा करनी चाहिए।
इस दिन महानिशिथकाल में महामृत्युंजय का जाप करने से रोग-शोक से राहत मिलती है। कोई भी व्रत पूर्ण श्रद्धा रखकर किया जाए तभी सफल होता है।
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाये ! भगबान भोलेनाथ का आशीर्वाद आप पर बना रहे , शुभ मंगल कामना आपके और आपके परिवार के लिए !
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रात्रि जागरण करते हुये चार बार भगवान शिव आरती करते हुये शिव आराधना करनी चाहिए। दूसरे दिन प्रातःकाल स्नान करके जौ, तिल, खीर तथा बेलपत्र का हवन कराकर ब्राह्मणों को भोजन कराकर, भेंट स्वरूप दक्षिणा देकर नर-नारियों को व्रत का पारण करना चाहिए।
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महाशिवरात्रि (Maha Shivratri) फाल्गुन कृष्ण प़क्ष की चतुर्दशी को बड़े ही धूम-धाम से मनाई जाती है। हिन्दू धर्म में महाशिवरात्रि का पावन पर्व मुख्यतः त्यौहारों में से एक है। कहा जाता है कि सृष्टि का प्रारम्भ इसी दिन हुआ था। मध्य रात्रि को भगवान शंकर का ब्रह्मा से रूद्र के रूप में अवतरण हुआ था। इसी दिन भगवान शिव एवं पार्वती देवी का विवाह हुआ था।
प्रलय के समय उसी दिन भगवान शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुये ब्रह्माण्ड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त किया था। इसलिए इसे महाशिवरात्रि (Maha Shivratri) या कालरात्रि कहा जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार महा शिव रात्रि (Maha Shiv ratri) के दिन भगवान शिव की पूजा-अर्चना विधि-विधान से करते हुये जो नर-नारियाँ व्रत रखती हैं, उनकी मनोकामनाएँ पूरी होती है।
प्रलय के समय उसी दिन भगवान शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुये ब्रह्माण्ड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त किया था। इसलिए इसे महाशिवरात्रि (Maha Shivratri) या कालरात्रि कहा जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार महा शिव रात्रि (Maha Shiv ratri) के दिन भगवान शिव की पूजा-अर्चना विधि-विधान से करते हुये जो नर-नारियाँ व्रत रखती हैं, उनकी मनोकामनाएँ पूरी होती है।
महाशिवरात्रि (Maha Shivratri) के दिन पूजा-अर्चना की विधि-
त्रयोदशी को एक बार भोजन करके चतुर्दशी को दिनभर निराहार रहना पड़ता है। काले तिल का स्नान करके रात्रि में विधि-विधान से योगीश्वर भगवान शिवजी की पूजा करनी चाहिए। पुष्प, मालाओं एवं सौन्दर्य वस्त्रों से मण्डप तैयार करना चाहिए। वेदी पर कलश की स्थापना करके भगवान शिव-पार्वती तथा नन्दी महाराज की मूर्ति रखनी चाहिए। कलश को गंगाजल से भरकर रोली, चावल, पान, सुपारी लोंग, इलाइची, चन्दन, दूध, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, बेलपत्र आदि का प्रसाद भगवान शम्भूनाथ को अर्पित करके पूजा अर्चना विधि-विधान से करनी चाहिए।रात्रि जागरण करते हुये चार बार भगवान शिव आरती करते हुये शिव आराधना करनी चाहिए। दूसरे दिन प्रातःकाल स्नान करके जौ, तिल, खीर तथा बेलपत्र का हवन कराकर ब्राह्मणों को भोजन कराकर, भेंट स्वरूप दक्षिणा देकर नर-नारियों को व्रत का पारण करना चाहिए।
महाशिवरात्रि (Maha Shivratri) से सम्बन्धित एक पौराणिक कथा प्रचलित है, जिसमें भगवान शिव शंकर के भोलेपन स्वभाव को उजागर किया गया है कि भोले शंकर की अज्ञातवश की गई पूजा भी फलदायक होती है। आइए हम उस कथा का उल्लेख करते हैं, जिसे पढ़कर या सुनकर मुनष्य के अन्दर ज्ञान के चक्षु खुल जाते हैं :-
Maha Shivratri (महाशिवरात्रि की प्रचलित एक पौराणिक कथा)
प्राचीनकाल में एक नृशंस बेहेलिया था जो प्रतिदिन अनेक निरपराध जीवों को मारकर अपने परिवार का पोलन-पोषण करता था। एक बार वह सारे जंगल में विचरण करने उपरान्त जब उसे कोई शिकर न मिला तो भूख से क्षुदाकुल अथवा दुःखी होकर एक तालाब के किनारे रहने का निश्चय किया। उस स्थान पर एक बेलपत्र वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित था। बहेलिया उसी वृक्ष की शाखा पर चढ़कर अपने रहने के लिए आवस-स्थल बनाने के लिए, बेलपत्रों को तोड़ रहा था। बेलपत्र के पत्ते वृक्ष के ऊपर से आकर शिवलिंग पर आच्छादित हो गये थो। दिन भर भूखा रहने से उस बहेलिये का एक प्राकर से महाशिवरात्रि का व्रत पूरा हो गया।
रात का कुछ समय व्यतीत हो के पश्चात् एक गाभिन हिरणी उधर पानी पीने आई। बहेलिया को निशाना साधते हुये देखकर वह झिझकती हुई दीनवाणी में बोली- हे व्याघ! मैं अभी गर्भवती हूँ, प्रसव बेला भी समीप है, इसलिए इस समय मुझे मत मारो। मैं बच्चे को जन्म देने के बाद शीघ्र ही आ जाऊँगी। बहेलिया उसकी कही गई बात को मान गया।
थोड़ी रात व्यतीत होने पर एक दूसरी हिरणी उस स्थान पर आई। बहेलिये ने पुनः निशाना साधा, तो हिरणी ने अनुरोध किया कि मैं अभी ऋतुक्रिया से निवृत्त सकामा हूँ। इसलिए मुझे पति समागम करने दीजिये। हे व्याघ राज! मुझे मारिया नहीं। मैं समागम करने के पश्चात् स्वंय तुम्हारे पास आ जाऊँगी। बहेलिया ने उसकी भी बात मान ली।
रात्रि के तृतीय पहर में एक तीसरी हिरणी अपने छोटे-छोटे छोनों (बच्चे) को उसी जलाशय में पानी पिलाने आई। बहेलिया ने उसको भी देखकर धनुष बाण उठा लिया। तब हिरणी भयाकुल होकर कातर स्वर में बोली- हे व्याघ राज! मैं इन छोनों(बच्चे) को अपने पति हिरण के संरक्षण में छोड़ आऊँ, तब मुझे मार डालना। बहेलिया उसके दीन वचनों से प्रभावित होकर उसे भी छोड़ दिया।
प्रातः काल के समय एक बलवान हिरण उसी सरोवर पर आया। बहेलिया अपने प्रकृति के अनुसार उसका शिकार करने के लिए खड़े हो गया। इस प्रकार का दृश्य देखते ही हिरण व्याघ से प्रार्थना करने लगा- हे व्याघ राज! यदि आपने मुझसे पूर्व आने वाली तीन हिरणियों को मार दिया है, तो मुझे भी मार दो अन्यथा अगर वे तुम्हारे द्वारा छोड़ दी गई हों, तो मैं उनसे मिलकर आता हूँ। क्योंकि मैं ही उनका सहचर हूँ। हिरण की करुणामयी वाणी सुनकर बहेलिया ने रात भर आपबीती सुनाकर उसे भी छोड़ दिया।
थोड़ी रात व्यतीत होने पर एक दूसरी हिरणी उस स्थान पर आई। बहेलिये ने पुनः निशाना साधा, तो हिरणी ने अनुरोध किया कि मैं अभी ऋतुक्रिया से निवृत्त सकामा हूँ। इसलिए मुझे पति समागम करने दीजिये। हे व्याघ राज! मुझे मारिया नहीं। मैं समागम करने के पश्चात् स्वंय तुम्हारे पास आ जाऊँगी। बहेलिया ने उसकी भी बात मान ली।
रात्रि के तृतीय पहर में एक तीसरी हिरणी अपने छोटे-छोटे छोनों (बच्चे) को उसी जलाशय में पानी पिलाने आई। बहेलिया ने उसको भी देखकर धनुष बाण उठा लिया। तब हिरणी भयाकुल होकर कातर स्वर में बोली- हे व्याघ राज! मैं इन छोनों(बच्चे) को अपने पति हिरण के संरक्षण में छोड़ आऊँ, तब मुझे मार डालना। बहेलिया उसके दीन वचनों से प्रभावित होकर उसे भी छोड़ दिया।
प्रातः काल के समय एक बलवान हिरण उसी सरोवर पर आया। बहेलिया अपने प्रकृति के अनुसार उसका शिकार करने के लिए खड़े हो गया। इस प्रकार का दृश्य देखते ही हिरण व्याघ से प्रार्थना करने लगा- हे व्याघ राज! यदि आपने मुझसे पूर्व आने वाली तीन हिरणियों को मार दिया है, तो मुझे भी मार दो अन्यथा अगर वे तुम्हारे द्वारा छोड़ दी गई हों, तो मैं उनसे मिलकर आता हूँ। क्योंकि मैं ही उनका सहचर हूँ। हिरण की करुणामयी वाणी सुनकर बहेलिया ने रात भर आपबीती सुनाकर उसे भी छोड़ दिया।
महाशिवरात्रि (Maha Shivratri)का प्रभाव-
दिन भर का उपवास एवं पूरी रात जागरण तथा शिव प्रतिमा पर बेल पत्र गिरने (चढ़ाने) के कारण बहेलिया में आन्तरिक मन शुद्धता आ गई। उसका मन निर्दयता से कोमलता बदल गया तथा हिरण परिवार को लौटने पर भी न मारने का निश्चय कर लिया। भगवान शंकर के प्रभाव से उसका हृदय इतना पवित्र हो गया कि वह पूणर्तः अहिंसक बन गया। उधर हिरणियों से मिलने के पश्चात् हिरण सपरिवार बहेलिया के पास आकर अपने दिये गये वचन के अनुसार सत्यवादिता का परिचय देता है।
उनके सत्याग्रह से प्रभावित होकर बेहेलिया ’’अहिंसा परमो धर्म’’ का पुजारी बन गया। उसकी आंखों से आँसू छलक आये तथा अपने पूर्व कर्मों का पश्चाताप करने लगा, जिसकी स्वर्ग लोकी देवताओं ने सराहना की और भगवान भोले शंकर ने अपना पुष्प्पविमान भेजकर बहेलिया तथा मृग परिवार को शिवलोक का अधिकारी बनाया।