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हिन्दू धर्म के सबसे बड़े अंधविश्वास कौन से है? हजारों वर्ष से चली आ रही परंपराओं के कारण हिन्दू धर्म में विश्वास-अंधविश्वास बन गए हैं या कि उनमें कोई विज्ञान छुपा है? ये विश्वास शास्त्रसम्मत है या कि परंपरा और मान्यताओं के रूप में लोगों द्वारा स्थापित किए गए हैं?

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हजारों वर्ष से चली आ रही परंपराओं के कारण हिन्दू धर्म में विश्वास-अंधविश्वास बन गए हैं या कि उनमें कोई विज्ञान छुपा है? ये विश्वास शास्त्रसम्मत है या कि परंपरा और मान्यताओं के रूप में लोगों द्वारा स्थापित किए गए हैं?

सवाल कई है जिसके जवाब ढूंढ़ने का प्रयास कम ही लोग करते हैं और जो नहीं करते हैं वे किसी भी विश्वास को अंधभक्त बनकर माने चले जाते हैं और कोई भी यह हिम्मत नहीं करता है कि ये मान्यताएं या परंपराएं तोड़ दी जाएं या इनके खिलाफ कोई कदम उठाए जाएं। आओ जानते हैं हिन्दू धर्म की ऐसी 10 परंपराएं, जो अंधविश्वास हो सकती हैं या और कुछ...
पशु बलि प्रथा- देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि का प्रयोग किया जाता है। बलि प्रथा के अंतर्गत बकरा, मुर्गा या भैंसे की बलि दिए जाने का प्रचलन है। सवाल यह उठता है कि क्या बलि प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा है?
'' मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।''- ऋग्वेद 1/114/8
अर्थ : हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।
विद्वान मानते हैं कि हिन्दू धर्म में लोक परंपरा की धाराएं भी जुड़ती गईं और उन्हें हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाने लगा। जैसे वट वर्ष से असंख्य लताएं लिपटकर अपना ‍अस्तित्व बना लेती हैं लेकिन वे लताएं वक्ष नहीं होतीं उसी तरह वैदिक आर्य धर्म की छत्रछाया में अन्य परंपराओं ने भी जड़ फैला ली। इन्हें कभी रोकने की कोशिश नहीं की गई।
बलि प्रथा का प्राचलन हिंदुओं के शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में ही देखने को मिलता है लेकिन इसका कोई धार्मिक आधार नहीं है। बहुत से समाजों में लड़के के जन्म होने या उसकी मान उतारने के नाम पर बलि दी जाती है तो कुछ समाज में विवाह आदि समारोह में बलि दी जाती है जो कि अनुचित मानी गई है। वेदों में किसी भी प्रकार की बलि प्रथा कि इजाजत नहीं दी गई है।
'' इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।''
अर्थ : ''उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।'' -यजु. 13/50
पशुबलि की यह प्रथा कब और कैसे प्रारंभ हुई, कहना कठिन है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि वैदिक काल में यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती है। ऐसा तर्क देने वाले लोग वैदिक शब्दों का गलत अर्थ निकालने वाले हैं। वेदों में पांच प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है।
पशु बलि प्रथा के संबंध में पंडित श्रीराम शर्मा की शोधपरक किताब 'पशुबलि : हिन्दू धर्म और मानव सभ्यता पर एक कलंक' पढ़ना चाहिए।
'' न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।'- सामवेद-2/7
अर्थ : ''देवों! हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं, वेद मंत्र के आदेशानुसार आचरण करते हैं।''
वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। जो बलि प्रथा का समर्थन करता है वह धर्मविरुद्ध दानवी आचरण करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सजा तैयार है। मृत्यु के बाद उसे ही जवाब देना के लिए हाजिर होना होगा।
जादू-टोना, तंत्र-मंत्र : क्या जादू टोना करना या मंत्र-तंत्र द्वारा अपने स्वार्थ सिद्ध करना या दूसरों को नुकसान पहुंचाना हिन्दू धर्म का अंग है? शैव, शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में इस तरह का प्रचलन बहुत है। आजकल ज्योतिष भी तांत्रिक टोटके और उपाय बताने लगे हैं।
ग्रह-नक्षत्र पूजा, वशीकरण, सम्मोहन, मारण, ताबीज, स्तंभन, काला जादू आदि सभी का वैदिक मत अनुसार निषेध है। ये सभी तरह की विद्याएं स्थानीय परंपरा का हिंसा हैं। हालांकि अथर्ववेद में इस तरह की विद्या को यह कहकर दर्शाया गया है कि ऐसी विद्याएं भी समाज में प्रचलित हैं, जो कि वेद विरुद्ध हैं। अथर्ववेद का लक्ष्य है लोगों को सेहतमंद बनाए रखना, जीवन को सरल बनाना और ब्रह्मांड के रहस्य से अवगत कराना।
टोने-टोटके से व्यक्ति और समाज का अहित ही होता है और सामाजिक एकता टूटती है। ऐसे कर्म करने वाले लोगों को जाहिल समाज का माना जाता है। अथर्ववेद में बताया गया है कि जिस घर में मूर्खों की पूजा नहीं होती है, जहां विद्वान लोगों का अपमान नहीं होता है बल्कि विद्वान और संत लोगों का उचित मान-सम्मान किया जाता है, वहां समृद्धि और शांति होती है। कर्मप्रथान सफल जीवन जीने की सीख देता है अथर्ववेद।
सती प्रथा : सती प्रथा के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। सती माता के मंदिर भी बने हैं, खासकर ये मंदिर राजस्थान में बहुतायत में मिलते हैं। सवाल उठता है कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में स्त्री के विधवा हो जाने पर उसके सती होने की प्रथा का प्रचलन है?
जवाब है नहीं। हालांकि अब यह प्रथा बंद है लेकिन इस प्रथा में जीवित विधवा पत्नी को उसकी इच्छा से मृत पति की चिता पर जिंदा ही जला दिया जाता था। विधवा हुई महिला अपने पति के अंतिम संस्कार के समय स्वयं भी उसकी जलती चिता में कूदकर आत्मदाह कर लेती थी। इस प्रथा को लोगों ने देवी सती (दुर्गा) का नाम दिया। देवी सती ने अपने पिता राजा दक्ष द्वारा उनके पति शिव का अपमान न सह सकने करने के कारण यज्ञ की अग्नि में जलकर अपनी जान दे दी थी।
शोधकर्ता मानते हैं कि इस प्रथा का भयानक रूप मुस्लिम काल में देखने को मिला जबकि मुस्लिम आक्रांता महिलाओं को लूटकर अरब ले जाते थे। जब हिन्दुस्तान पर मुसलमान हमलावरों ने आतंक मचाना शुरू किया और पुरुषों की हत्या के बाद महिलाओं का अपहरण करके उनके साथ दुर्व्यवहार करना शुरू किया तो बहुत-सी महिलाओं ने उनके हाथ आने से, अपनी जान देना बेहतर समझा।
और जब अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मावती को पाने की खातिर चित्तौड़ में नरसंहार किया था तब उस समय अपनी लाज बचाने की खातिर पद्मावती ने सभी राजपूत विधवाओं के साथ सामूहिक जौहर किया था, तभी से सती के प्रति सम्मान बढ़ गया और सती प्रथा परंपरा में आ गई। इस प्रथा के लिए धर्म नहीं, बल्कि उस समय की परिस्थितियां और लालचियों की नीयत जिम्मेदार थी।
हालांकि इस प्रथा को बाद में बंद कराने का श्रेय राजा राममोहन राय के अलावा कश्मीर के शासक सिकन्दर, पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क, मुगल सम्राट अकबर, पेशवाओं, लॉर्ड कार्नवालिस, लॉर्ड हैस्टिंग्स और लॉर्ड विलियम बैंटिक को जाता है।
छुआछूत : अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है, लेकिन यह बिलकुल ही असत्य है। इस मुद्दे पर धर्म शास्त्रों में क्या लिखा है यह जानना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस मुद्दे को लेकर हिन्दू सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया गया है और किया जा रहा है।
पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है। हर धर्म का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है। क्यों? यही जानना जरूरी है। लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है। कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए वे जातिवाद और छुआछूत को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं और ऐसा भारत में ही नहीं, दूसरे देशों में भी होता रहा है।
दलितों को 'दलित' नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया, इससे पहले 'हरिजन' नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया। इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे वे हिन्दू धर्म ने नहीं दिए। आज जो नाम दिए गए हैं वे पिछले 60 वर्ष की राजनीति की उपज हैं और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वे पिछले 900 सालों की गुलामी की उपज हैं।
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं, जो आज दलित हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं या अब वे बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं, जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। यहां ऊंची जाति के लोगों को 'सवर्ण' कहा जाने लगा है। यह 'सवर्ण' नाम भी हिन्दू धर्म ने नहीं दिया।
मनुस्मृति, पुराण, रामायण और महाभारत ये हिन्दुओं के धर्मग्रंथ नहीं हैं। तुलसीदास कृत रामचरित मानस भी हिन्दू धर्मग्रंथ नहीं है। यदि इन ग्रंथों में कहीं भेदभाव की भावना लिखी है तो यह वेदसम्मत नहीं है।
मूर्ति पूजा : हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा का प्रचलन कब शुरू हुआ यह कहना मुश्किल है। हिन्दू धर्म में इस प्रथा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही रहा है, जो कि लोक परंपरा का हिंसा थी। शैव, शाक्त, नाथ, नाग आदि द्रविड़म संप्रदाय में इस प्रथा का शुरुआत से ही प्रचलन रहा है। सबसे पहले लोग नाग और यक्ष की पूजा करते थे।
महाभारतकाल में भी मूर्ति पूजा का प्रचलन था, लेकिन तब लोग शिवलिंग, विष्णु और दुर्गा की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करते थे। पुराणों की रचना के बाद यह प्रचलन और बढ़ा। जैन और बौद्ध काल में इस प्रथा ने व्यापक रूप लिया। हिंदुओं ने भी अपने देवताओं की मूर्ति बनाकर उनकी पूजा करना शुरू की और इस तरह यह प्रचलन में आ गई। बाद में लोग, झाड़, वृक्ष, नदी और पशुओं की पूजा भी करने लगे।
न तस्य प्रतिमा:
' न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।' -यजुर्वेद 32वां अध्याय।
अर्थात जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रों से महिमा की गई है उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं। अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है। उसका नाम ही अत्‍यंत महान है। वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है।
ज्योतिषी परंपरा : क्या प्रचलित ज्योतिषी धारणा हिन्दू धर्म का हिस्सा है? इसका जवाब है नहीं। आज का ज्योतिषी लोगों का भविष्य बताने और दुखों के टोटके बताने का कार्य करता है। इस विद्या से व्यक्ति ईश्वर से कटकर ग्रह-नक्षत्रों और तरह-तरह के देवी-देवताओं को मानने लगता है। इससे उसके जीवन में सुधार होने के बजाय वह और भयपूर्ण और विरोधाभासी जीवन जीने लगता है।
वेद के छः अंग हैं जिसमें छठा अंग ज्योतिष है।
महाभारत के दौर में राशियां नहीं हुआ करती थीं। ज्योतिष 27 नक्षत्रों पर आधारित था, न कि 12 राशियों पर। नक्षत्रों में पहले स्थान पर रोहिणी था, न कि अश्विनी। जैसे-जैसे समय गुजरा, विभिन्न सभ्यताओं ने ज्योतिष में प्रयोग किए और चंद्रमा और सूर्य के आधार पर राशियां बनाईं और लोगों का भविष्य बताना शुरू किया, जबकि वेद और महाभारत में इस तरह की विद्या का कोई उल्लेख नहीं मिलता जिससे कि यह पता चले कि ग्रह-नक्षत्र व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं।
पारंपरिक अंधविश्वास और टोटके : ऐसे बहुत से अंधविश्वास हैं, जो लोक परंपरा से आते हैं जिनके पीछे कोई ठोस आधार नहीं होता। ये शोध का विषय भी हो सकते हैं। इसमें से बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो धर्म का हिस्सा हैं और बहुत-सी बातें नहीं हैं। हालांकि इनमें से कुछ के जवाब हमारे पास नहीं है। उदारणार्थ-
* आप बिल्ली के रास्ता काटने पर क्यों रुक जाते हैं?
* जाते समय अगर कोई पीछे से टोक दे तो आप क्यों चिढ़ जाते हैं?
* किसी दिन विशेष को बाल कटवाने या दाढ़ी बनवाने से परहेज क्यों करते हैं?
* क्या आपको लगता है कि घर या अपने अनुष्ठान के बाहर नींबू-मिर्च लगाने से बुरी नजर से बचाव होगा?
* कोई छींक दे तो आप अपना जाना रोक क्यों देते हैं?
* क्या किसी की छींक को अपने कार्य के लिए अशुभ मानते हैं?
* घर से बाहर निकलते वक्त अपना दायां पैर ही पहले क्यों बाहर निकालते हैं?
* जूते-चप्पल उल्टे हो जाए तो आप मानते हैं कि किसी से लड़ाई-झगड़ा हो सकता है?
* रात में किसी पेड़ के नीचे क्यों नहीं सोते?
* रात में बैंगन, दही और खट्टे पदार्थ क्यों नहीं खाते?
* रात में झाडू क्यों नहीं लगाते और झाड़ू को खड़ा क्यों नहीं रखते?
* अंजुली से या खड़े होकर जल नहीं पीना चाहिए।
* क्या बांस जलाने से वंश नष्ट होता है।
ऐसे ढेरों विश्वास और अंधविश्वास हैं जिनमें से कुछ का धर्म में उल्लेख मिलता है और उसका कारण भी लेकिन बहुत से ऐसे विश्वास हैं, जो लोक परंपरा और स्थानीय लोगों की मान्यताओं पर आधारित हैं।
असंख्‍य तीर्थ और त्योहार : हिंदुओं में 365 दिन में से संभवत: 300 त्योहार होंगे और 4 धाम की बजाय 40 तीर्थ होंगे। बहुत से त्योहार लोक परंपरा का हिस्सा है और बहुत से तीर्थ तो लोगों ने स्वयं ही निर्मित कर लिए हैं। पहले जन्माष्टमी, हनुमान जयंती, रामनवमी, नवरात्रि और शिवरात्रि मनाई जाती थी, लेकिन अब लोगों ने पुराण पढ़-पढ़कर बहुत से लोगों की जयंती मनाना शुरू कर दी है।
प्रत्येक समाज का अपना एक अलग त्योहार और तीर्थ हो चला है, लेकिन यह खोजना जरूरी है कि सभी हिंदुओं का एकमात्र त्योहार कौन-सा है? धार्मिक एकता के लिए जरूरी है कि परंपरा और त्योहार के इतिहास को समझकर मनाया जाए।
यह लंबे काल और वंश परंपरा का परिणाम ही है कि वेदों को छोड़कर हिन्दू अब स्थानीय स्तर के त्योहार और विश्वासों को ज्यादा मानने लगा है। सभी में वह अपने मन से नियमों को चलाता है। कुछ समाजों ने मांस और मदिरा के सेवन हेतु उत्सवों का निर्माण कर लिया है। वेद अनुसार रात्रि के सभी कर्मकांड निषेध माने गए हैं।
ईश्वर एक या अनेक : वेद एकेश्वरवाद की घोषणा करते हैं, इसके हजारों उदाहरण हैं लेकिन हिन्दू समाज एक ईश्वर की प्रार्थना को छोड़कर तरह-तरह के देवी-देवताओं की पूजा करता है, क्यों यह उचित है? यह एक बहस का विषय है।
वैदिक काल में लोग ब्रह्म (ईश्‍वर) की प्रार्थना करते थे। फिर लोग पंच तत्वों की प्रार्थना करने लगे। फिर इनकी पूजा का प्रचलन शुरू हुआ, फिर इंद्र, वरुण, आदित्य, अश्‍विन कुमार आदि वैदिक देवताओं को छोड़कर लोग ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा करने लगे।
फिर लोगों ने राम और कृष्ण के मंदिर बनाए तो विष्णु और ब्रह्मा की पूजा-प्रार्थना कम होने लगी। कई लोगों ने चालीसाएं लिखीं और धर्म में एक नए प्रचलन की शुरुआत की। लेकिन क्या वेद में लिखा है कि राम को पूजो, कृष्ण को ईश्वर मानो?
अब आज के युग में लोग इतने भयभीत रहने लगे हैं कि हनुमान और शनि भगवान के मंदिरों की संख्या बढ़ गई है। किसी भी देवी-देवता और गुरु की पूजा करने का यहां विरोध नहीं, लेकिन सिर्फ एक सवाल है कि क्या सैकड़ों देवताओं की पूजा करना या करवाना वेदसम्मत है?
कर्मकांड और संस्कार : बहुत से ऐसे कर्मकांड और संस्कार हैं जिनका हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं है। जैसे 16 संस्कार के अलावा भी लोग तरह-तरह के संस्कार और रीति-रिवाज मानते हैं। प्रत्येक समाज का अपना अलग रीति और रिवाज है। जन्म-संस्कार के तरीके अलग, विवाह के तरीके अलग और अंतिम संस्कार के तरीके भी अलग। क्या मृत्युभोज का धर्म में उल्लेख मिलता है?
ऐसे बहुत से संस्कार, कर्मकांड, यज्ञकर्म और पूजा-पाठ हैं जिनका हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं। उनमें से ज्यादातर स्थानीय परंपरा का हिस्सा हैं। लोग हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों को अपनाते हैं लेकिन उसका शास्त्रसम्मत पालन नहीं करते उसमें स्थानीय परंपरा का प्रभाव ज्यादा रहता है।
दोस्तो मेरा मकसद किसी की आस्था को चोट पहुचाने का नही बल्कि जानकारी देना है, मैं स्वयं भी हिन्दू ही हूँ…और मुझे गर्व है कि मैं हिन्दू हूँ…!

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