श्रीमद भगवदगीता - अध्याय-2 श्लोक-7
अपने मन की दुर्बलता के कारण जब हम अपना कर्तव्य भूल जाते हैं और धैर्य खो देते हैं तो ऐसी अवस्था में अपने गुरु के शरणागत होकर, जो हमारे लिए श्रेयस्कर हो, उसे जानना चाहिए ।
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श्रीमद भगवदगीता - अध्याय: 2 श्लोक: 13
जिस प्रकार आत्मा वर्तमान शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होती रहती है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर वही आत्मा एक शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर में चली जाती है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से विचलित नहीं होता।
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श्रीमद भगवद गीता - अध्याय 2 श्लोक 22
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करती है। सफलता के लिए आवश्यक परिवर्तन को अनुकूल बनाना सीखना चाहिए
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श्रीमद भगवदगीता - अध्याय: 2 श्लोक:44
इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से मनुष्य अपने असली धर्म (भक्ति और सेवा) को भूल जाता है।
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श्रीमद भगवदगीता - अध्याय: 2 श्लोक: 62
किसी भी इन्द्रिय के विषयों का लगातार चिन्तन करने से मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।
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श्रीमद भगवद गीता अध्याय 3 श्लोक 8
कर्म करना निष्कर्म होने से बेहतर है, इसलिए अपना | नियत कर्म अवश्य करना चाहिए, क्योंकि कर्म न करने से तो शरीर का निर्वाह भी ठीक से नहीं हो सकता।
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श्रीमद भगवदगीता - अध्याय - 3 श्लोक-19
बड़ी सफलता का हकदार वही है जो कर्मफल में आसक्त हुए बिना, निरंतर अपने कर्म को कर्त्तव्य समझ कर करता है।
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श्रीमद भगवदगीता - अध्याय: 3 श्लोक: 27
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों (सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण) द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।
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श्रीमद भगवद गीता अध्याय 4 श्लोक 8
सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए, दुर्जनो के विनाश के लिए तथा धर्म के नियमों की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
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श्रीमद भगवदगीता - अध्याय - 4 श्लोक-34
गुरु के पास जाकर, विनीत और सेवा भाव से, जिज्ञासा करने से गुरु दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं जिससे सारी भौतिक समस्याओं से छुटकारा मिलता है।
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भगवद गीता - अध्याय 4 श्लोक 40
'अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति जीवन में कभी भी सफलता और आनंद प्राप्त नहीं कर सकता । ”
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श्रीमद भगवद गीता - अध्याय 5 श्लोक 20
सबसे समझदार और स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति वही है जो सफलता मिलने पर अहंकार में नहीं आता और विफलता में गम में नहीं डूब जाता।
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श्रीमद भगवदगीता - अध्याय: 5 श्लोक: 22
भौतिक इन्द्रियों जैसे कि आँख, नाक, कान, जिह्वा और त्वचा के संपर्क से उत्पन्न होने वाले भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः बुद्धिमान व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता।
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उन लोगों की सफलता निकट भविष्य में सुरक्षित है जो स्व-अनुशासित और सुधार के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैं।"
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श्रीमद भगवद गीता: अध्याय 6, श्लोक 5
हमारा मन हमारा मित्र भी है और शत्रु भी । हर समझदार मनुष्य को चाहिए कि मन की सहायता से अपना भला करे और अपनी चेतना को कभी नीचे जा गिरने दे।
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श्रीमद भगवद गीता: अध्याय 6, श्लोक 9
ऐसा मनुष्य अत्यन्त श्रेष्ठ माना जाता है जो अपने मित्रों एवं शत्रुओं - हितेषियों एवं ईर्ष्यालुओं धर्मात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है।
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श्रीमद भगवदगीता - अध्याय-6 श्लोक-32
जो दूसरों के सुख तथा दुख को देखकर इस तरह प्रतिक्रिया करता है जैसे कि वह उसके अपने हों ऐसा व्यक्ति प्रत्येक प्राणी का सखा और पूर्ण योगी कहलाता है ।।
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श्रीमद भगवदगीता - अध्याय:6 श्लोक:35
निस्सन्देह चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है; किन्तु उपयुक्त अभ्यास तथा विरक्ति द्वारा ही ऐसा कर पाना सम्भव है।
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श्रीमद भगवद गीता: अध्याय 12, श्लोक 15
जो व्यक्ति ना तो दूसरों को कष्ट पहुंचाता है और ना ही किसी के द्वारा विचलित होता है जो सुख-दुख में, - भय तथा चिन्ता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
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श्रीमद भगवदगीता - अध्यायः 14 श्लोक: 26
जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से अपने निर्धारित सेवा कार्य में लगा रहता है, वह शीघ्र ही प्रकृति के 3 गुणों (सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण) से मुक्त जाता
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श्रीमद भगवदगीता -अध्याय - 16 श्लोक-4
अहंकार, घमण्ड, क्रोध और निष्ठुरता - ये अज्ञान से उत्पन्न हुए आसुरी प्रकृति के लोगों के गुण हैं. - इनका त्याग ही हमें अच्छा इंसान बनाता है।
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श्रीमद भगवदगीता : अध्याय-16, श्लोक-21
प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि अपने जीवन से काम, क्रोध और लोभ का त्याग कर दे क्योंकि इनके रहते जीवन में सफलता मिलनी संभव नहीं ||
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श्रीमद भगवदगीता - अध्यायः 17 श्लोक: 14
ईश्वर, गुरु और माता-पिता का सम्मान एवं जीवन में पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा - ये दिव्य शारीरिक तपस्याएं कहलाती हैं।
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