बहुत कम दृश्य ही मुझे प्रभावित करतें है उनमें भरत मिलाप,उद्धव माधव मुक्तिबोध, राधा उद्धव मिलन और कृष्ण सुदामा मिलन है।
इस दृश्य की कल्पना मात्र से ही हृदय निश्छल हो उठता है।
सुदामा समस्त वेद-पुराणों के ज्ञाता और विद्वान् ब्राह्मण थे। श्री कृष्ण से उनकी मित्रता ऋषि संदीपनी के गुरुकुल में हुई। सुदामा जी अपने ग्राम के बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे और अपना जीवन यापन ब्राह्मण रीति के अनुसार वृत्ति मांग कर करते थे। वे एक निर्धन ब्राह्मण थे फिर भी सुदामा इतने में ही संतुष्ट रहते और हरि भजन करते रहते | दीक्षा के बाद वे अस्मावतीपुर में रहतें थे जो बाद में सुदामापुरी के नाम से जाना जाने लगा।
कहते हैं सुदामा बचपन से बहुत धनवान थे लेकिन श्रापित चने खाने की वजह से दरिद्र हो गए।श्रापित चने की कहानी कुछ यूं है।एक बार एक ब्रामणी को लगातार 5 दिनों तक कुछ खाने को नहीं मिला।फिर कहीं से उसे दो मुट्ठी चने भिक्षा मांगने पर प्राप्त हुआ।उसने रात में उसे यह सोचकर नहीं खाया की सुबह भगवान को भोग लगाकर खाऊँगी।लेकिन रात में चोरों ने सोचा कि चने की पोटली में गहने हैं।और उन्होंने वो चुरा लिए ।बुढ़िया की नींद खटपट से खुली और उसने सोर मचा दिया।
गाँव के सारे लोग चोरों को पकडने के लिए दौडे। चोर वह पुटकी लेकर भगे। पकडे जाने के डर से सारे चोर संदीपन मुनि के आश्रम में छिप गये। (संदीपन मुनि का आश्रम गाँव के निकट था जहाँ भगवान श्री कृष्ण और सुदामा शिक्षा ग्रहण कर रहे थे)
गुरुमाता को लगा की कोई आश्रम के अन्दर आया है गुरुमाता देखने के लिए आगे बढीं चोर समझ गये कोई आ रहा है चोर डर गये और आश्रम से भगे ! भगते समय चोरों से वह पुटकी वहीं छूट गयी।और सारे चोर भग गये।
इधर भूख से व्याकुल ब्राह्मणी ने जब जाना ! कि उसकी चने की पुटकी चोर उठा ले गये। तो ब्राह्मणी ने श्राप दे दिया की ” मुझ दीनहीन असह।य के जो भी चने खायेगा वह दरिद्र हो जायेगा ”।
उधर प्रात:काल गुरु माता आश्रम मे झाडू लगाने लगी झाडू लगाते समय गुरु माता को वही चने की पुटकी मिली गुरु माता ने पुटकी खोल के देखी तो उसमे चने थे। सुदामा जी और कृष्ण भगवान जंगल से लकडी लाने जा रहे थे। (रोज की तरह )
गुरु माता ने वह चने की पुटकी सुदामा जी को दे दी। और कहा बेटा ! जब वन मे भूख लगे तो दोनो लोग यह चने खा लेना। सुदामा जी जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे। ज्यों ही चने की पुटकी सुदामा जी ने हाथ मे लिया त्यों ही उन्हे सारा रहस्य मालुम हो गया।
सुदामा जी ने सोंचा ! गुरु माता ने कहा है यह चने दोनो लोग बराबर बाँट के खाना। लेकिन ये चने अगर मैने त्रिभुवनपति श्री कृष्ण को खिला दिये तो सारी सृष्टि दरिद्र हो जायेगी। नही-नही मै ऐसा नही करुँगा मेरे जीवित रहते मेरे प्रभु दरिद्र हो जायें मै ऐसा कदापि नही करुँगा। मै ये चने स्वयं खा जाऊँगा लेकिन कृष्ण को नही खाने दूँगा।
और सुदामा जी ने सारे चने खुद खा लिए। दरिद्रता का श्राप सुदामा जी ने स्वयं ले लिया। चने खाकर। लेकिन अपने मित्र श्री कृष्ण को एक भी दाना चना नही दिया।
जब बार बार पत्नी के द्वारा कहे जाने पर सुदामा कृष्ण से मिलने गए क्या अद्भत दृश्य था।अक्षरों में व्याख्या करना असम्भव है।सुदामा के पैरों के छाले कृष्ण की पैरों में उभर आए।महाराज कृष्ण उन्हें लेने नङ्गे पाव अस्त व्यस्त हाल में ही दौड़ पड़े।चरण पखारते समय जल की जगह आंसुओ से चरण पखारते रहें।
सच मे मित्रता का मन कृष्ण ने जो निभाया।अगर रुक्मिणी ने रोक न लगाई होती तो तीनों लोक के साथ बैकुंठ भी सुदामा को सुपुर्द कर खुद निर्धन हो जाते भगवान।
दोस्ती की ऐसी मिसाल न किसी ने देखी न सुनी आज तक।वास्तव में वही तो मित्र थें।।।
गोकुलवासी श्री कृष्ण के मित्र ‘सुदामा’ अपनी मित्रता की वजह से शास्त्रों में जाने जाते हैं. शांत व सरल स्वभाव, कृष्ण के हृदय में अपनी एक अलग ही छवि बनाने वाले सुदामा को दुनिया मित्रता के प्रतिरूप के रूप में याद करती है, लेकिन इनका एक रूप ऐसा भी था जिसकी वजह से भगवान शिव ने उनका वध किया था. इस तथ्य पर विश्वास करना कठिन तो है परंतु यदि हम इतिहास के पन्ने पलटें तो यह सच उभर कर सामने आता है. तो ऐसा क्या किया था सुदामा ने जिस कारण भगवान शिव को विवश होकर उनका वध तक करना पड़ा?
सुदामा का पुनर्जन्म हुआ राक्षस शंखचूण के रूप में
स्वर्ग के विशेष भाग गोलोक में सुदामा और विराजा निवास करते थे. विराजा को कृष्ण से प्रेम था किंतु सुदामा स्वयं विराजा को प्रेम करने लगे. एक बार जब विराजा और कृष्ण प्रेम में लीन थे तब स्वयं राधा जी वहां प्रकट हो गईं और उन्होंने विराजा को गोलोक से पृथ्वी पर निवास करने का श्राप दिया. इसके बाद किसी कारणवश राधा जी ने सुदामा को भी श्राप दे दिया जिससे उन्हें गोलोक से पृथ्वी पर आना पड़ा. मृत्यु के पश्चात सुदामा का जन्म राक्षसराज दम्भ के यहां शंखचूण के रूप में हुआ तथा विराजा का जन्म धर्मध्वज के यहां तुलसी के रूप में हुआ.
शंखचूण ने तीनों लोकों पर किया था राज
मां तुलसी से विवाह के पश्चात शंखचूण उनके साथ अपनी राजधानी वापस लौट आए. कहा जाता है कि शंखचूण को भगवान ब्रह्मा का वरदान प्राप्त था और उन्होंने शंखचूण की रक्षा के लिए उन्हें एक कवच दिया था और साथ ही यह भी कहा था कि जब तक तुलसी तुम पर विश्वास करेंगी तब तक तुम्हें कोई जीत नहीं पाएगा. और इसी कारण शंखचूण धीरे-धीरे कई युद्ध जीतते हुए तीनों लोकों के स्वामी बन गए.
शंखचूण के क्रूर अत्याचार से परेशान होकर देवताओं ने भगवान ब्रह्मा से सुझाव की प्रार्थना की. ब्रह्मा जी द्वारा भगवान विष्णु से सलाह लेने की बात कहे जाने पर देवतागण विष्णु के पास गए. विष्णु ने उन्हें शिव जी से सलाह लेने को कहा. देवताओं की परेशानी को समझते हुए भगवान शिव ने उन्हें शंखचूण को मार कर उसके बुरे कर्मों से मुक्ति दिलाने का वचन दिया. लेकिन इससे पहले भगवान शिव ने शंखचूण को शांतिपूर्वक देवताओं को उनका राज्य वापस सौंपने का प्रस्ताव रखा परंतु हिंसावादी शंखचूण ने शिव को ही युद्ध लड़ने के लिए उत्तेजित किया.
और फिर किया शिव ने सुदामा का वध
शंखचूण यानि कि सुदामा के पुनर्जन्म के रूप से युद्ध के प्रस्ताव के पश्चात भगवान शिव ने अपने पुत्रों कार्तिकेय व गणेश को युद्ध के मैदान में उतारा. इसके बाद भद्रकाली भी विशाल सेना के साथ युद्ध के मैदान में उतरीं. शंखचूण पर भगवान ब्रह्मा के वरदान के कारण उन्हें मारना काफी कठिन था तो अंत में भगवान विष्णु युद्ध के दौरान शंखचूण के सामने प्रकट हुए और उनसे उनका कवच मांगा जो उन्हें ब्रह्माजी ने दिया था. शंखचूण ने तुरंत ही कवच भगवान विष्णु को सौंप दिया.
तत्पश्चात मां पार्वती के कहने पर भगवान विष्णु ने कुछ ऐसा किया कि युद्ध का पूरा दृश्य ही बदल गया. वे शंखचूण के कवच को पहनकर उस अवतार में मां तुलसी के समक्ष उपस्थित हुए. उनके रूप को देखकर मां तुलसी उन्हें अपना पति मान बैठीं और बेहद प्रसन्नता से उनका आदर सत्कार किया. जिस कारण मां तुलसी का पातिव्रत्य खंडित हो गया. शंखचूण की शक्ति उनकी पत्नी के पातिव्रत्य पर स्थित थी किंतु इस घटना के पश्चात वह शक्ति निष्प्रभावी हो गई. वरदान की शक्ति के समापन पर भगवान शिव ने शंखचूण का वध कर देवताओं को उसके अत्याचार से मुक्त किया. तो इस प्रकार से सुदामा के पुनर्जन्म के अवतरण शंखचूण का विनाश भगवान शिव के हाथों संपन्न हुआ था.