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भगवान शिव अपने गले में सांप क्यों पहनते हैं?

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भगवान शंकर की जटाओं और शरीर के इर्द-गिर्द कई सांप लिपटे हुए रहते है। शंकर का ये रुप वाकई मस्तमौला है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। शिव का ये रुप उनके सभी रुपों से बिलकुल हटकर है। भगवान शिव के विराट स्वरूप की महिमा बताते शिव पञ्चाक्षरी स्तोत्र की शुरुआत में शिव को ‘नागेन्द्रहाराय‘ कहकर स्तुति की गई है,जिसका सरल शब्दों में अर्थ है, ऐसे देवता जिनके गले में सर्प का हार है।
शिव और सर्प की पौराणिक मान्यताएं:
शिव के गले में एक नाग हमेशा लिपटा होता है जिसे हम वासुकी भी कहते हैं। शिव पुराण में बताया गया है कि, नागलोक के राजा शिव के परम भक्त थे और सागर मंथन के समय उन्होंने रस्सी का काम किया था जिससे सागर को मथा गया था। लिहाजा, इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने अपने गले में आभूषण की तरह लिपटे रहने का वरदान दिया।
पौराणिक मान्यताओं में भगवान शंकर और सर्प का जुड़ाव गहरा है तभी तो वह उनके शरीर से लिपटे रहते है। कहते हैं कि अगर आपको भगवान शंकर के दर्शन ना हो और अगर सर्प के दर्शन हो जाएं तो समझिए कि साक्षात भगवान शंकर के ही दर्शन हो गए।
पुराणों अनुसार सभी नागों की उत्पत्ति ऋषि कश्यप की पत्नि कद्रू के गर्भ से हुई है। कद्रू ने हजारों पुत्रों को जन्म दिया था जिसमें प्रमुख नाग थे- अनंत (शेष),वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख, पिंगला और कुलिक। कद्रू दक्ष प्रजापति की कन्या थीं।
शिव के बारे में कहा जाता है कि भगवान शिव श्मशान में निवास करते हैं, शरीर पर भस्म लगाते हैं और गले में नाग को धारण करते हैं। महादेव के इस स्वरूप में कहीं न कहीं गहरे रहस्य भी छिपे हैं। भगवान शिव के गले में लिपटा नाग इस बात का संकेत है कि भले ही कोई जीव कितना भी जहरीला क्यों न हो, पर्यावरण संतुलन में उसका भी महत्वपूर्ण योगदान है.
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योग विज्ञान में, सर्प कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है। यह आपके भीतर की वह उर्जा है, जो सुप्तावस्था में पड़ी है और इस्तेमाल नहीं हो रही है। शिव के साथ सर्प इस बात का प्रतीक है कि इंसान अगर अपनी भीतर की उर्जा यानि कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर ले तो वो भी शिवत्व को प्राप्त हो सकता है। सांप एक जमीन पर रेंगने वाला जीव है। मगर शिव ने उसे अपने सिर पर धारण किया है। इससे यह पता चलता है कि आत्मा हो या परमात्मा कुंडलिनी शक्ति ही सर्वोपरि है ।
शिव,सर्प और विज्ञान
सांप शिव के गले के चारों ओर लिपटा रहता है। यह सिर्फ एक प्रतीक नहीं है। इसके पीछे एक पूरा विज्ञान है। ऊर्जा शरीर में 114 चक्र होते हैं। आप उन्हें 114संधि स्थलों या नाडिय़ों के संगम के रूप में देख सकते हैं। इन 114 में से आम तौर पर शरीर के सात मूल चक्रों के बारे में बात की जाती है। इन सात मूल चक्रों में से, विशुद्धि चक्र आपके गले के गड्ढे में मौजूद होता है। यह खास चक्र सांप के साथ बहुत मजबूती से जुड़ा होता है। शिव का केंद्र विशुद्धि चक्र में है। उन्हें विषकंठ या नीलकंठ भी कहा जाता है क्योंकि वह सारे जहर को छान लेते हैं और उसे अपने शरीर में प्रवेश नहीं करने देते।
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माना जाता है कि नाग जाति के लोगों ने ही सर्वप्रथम शिवलिंग की पूजा का प्रचलन शुरू किया था। वासुकि की भक्ति से प्रसन्न होकर ही भगवान शिव ने उन्हें अपने गणों में शामिल कर लिया था।


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भगवान शिव जंगल और पहाड़ का निवासी हैं। वह साधना में लीन रहते हैं। साधना के समय जब एक व्यक्ति अष्ट योग सिद्ध होता हैं तब समाधि में चले जाते हैं। उसे तो यह तक ज्ञान नही होता कि उनके आसपास किया चल रहा हैं। एक सर्प उनके ऊपर आकर रहने लगे तो भी योगी समझ नही सकेंगे।
प्रश्न यह हैं कि यदि सर्प आकर रहे रही हैं तो साधना के बाद उन्होंने उसे हटाया कियु नही?
भगवान शिव सिर्फ जंगल का निवासी ही नही हैं, वह हर पशुओं को प्रेम भी करते हैं जिसलिये उनका अनेको नाम में से एक हैं पशुपति। तो एक पशु उनको इतना पसंद करते हैं कि उनके ऊपर ही रहने लगे तो वो कियु उसको चोर दे!
अब आइये, पुराणों की कहानी देखते हैं।
तब सत्य युग चल रहा था। समय काल गिने तो आजसे लगभग ३४,६१,१२० साल पहले की कहानी हैं। महाऋषि दुर्वासा ने एक यज्ञ किया था जिसका फल वह देवराज इन्द्र को देने वाले थे। किंतु असुरो के षड़यंत्र में वह नष्ट हो गया था। इन्द्र के ऐरावत को उस असुरों इस काम करने में बाध्य किया, जिसलिये ऋषि दुर्वासा ने इंद्रा को श्रीहीन होने का श्राप दिया।
[अन्य तरह से देखने के पहले यह सोचिये, दुर्वासा का सारा कष्ट नष्ट हो गया था, तो क्रोध तो होंगी ही]
उसका श्राप ऐसा था कि इन्द्र का सारा श्री संसार सागर में लुप्त हो जायेगा। और इस लिए समाधान सरूप समुद्र मंथन का सुझाव आया। समुद्र मन्थन कक एक ही समस्या था कि जो पहले आयेगा वो सिर्फ विष हैं, उसके बाद आएगा अमृत। और वह विष कोई साधारण विष नही, वह हलाहल कालकूट हैं। और यह किसीको भी मार सकते हैं। किंतु महादेव स्वयं संसार को बचाने हुये उसे पी लिया। देवी तारा (मा दुर्गा का ही एक रूप) ने उस विष को गले में रोक कर एक विशुद्धि चक्र का निर्माण किया। जिसके कारण विष महादेव के दिव्य देह को नष्ट नही कर सका। किन्तु कंठ नील हो गया था जिसके कारण उसे नीलकण्ठ नाम दिया गया।
विष तो रुक गया किन्तु प्रति मुहूर्त उस विष का प्रभाब चारो ओर फैल रहा था। और वासुकि ने महादेव के भक्त हिने के नाते उस विष का प्रभाब रोक रखा। वासुकि एक साप हैं तो विष का कोई प्रभाब उसपे नही होता।
यह रहा कहानी समुद्र मन्थन, नीलकण्ठ महादेव, पश्चिम बंगाल के तारा शक्ति पीठ के देवी तारा माता और वासुकि नाग के धारण का।
कहानी का सिर्फ प्रयोजनीय अंश बताया गया हैं। यह पूरी कहानी नही हैं। |


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शिव कोबरा राजा, वासुकी को गले में पहनते हैं।
और इस प्रकार वासुकी शिव को नागभरण / नागभुषण (आभूषण के रूप में सर्प) बन गया।
शिव का नाग धारण करना निर्भयता और शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। सांप हमेशा अपने विष के लिए आशंकित रहते हैं, और इस तरह शक्तिशाली होते हैं। तो, शिव के शरीर और गर्दन पर एक सांप होने से पता चलता है कि वे सभी भय और कमजोरियों को दूर करेंगे, और अपने भक्तों की रक्षा करेंगे।
शिव के वासुकी पहनने के पीछे शास्त्रों में उल्लिखित विभिन्न कारण है (शिव द्वारा वासुकी को पहनने का एकमात्र कारण क्या है, अभी भी एक विवादास्पद है, इसलिए मैं सभी का उल्लेख कर रहा हूं)
  • शिव पशुपतिनाथ हैं, और सभी जानवरों के रक्षक हैं। इसलिए, यह दिखाने के लिए कि वह सभी जीवित प्राणियों में अंतर नहीं करता है, उसने वासुकी को अपनी गर्दन पर एक स्थायी स्थान दिया।
  • जब गरुड़ सभी सांपों को मार रहे थे, तब वासुकी, कोबरा राजा ने गरूड़ो से बचने और विलुप्त होने से बचने के लिए शिव से संपर्क किया। तब शिव ने कोबरा को अपना आभूषण बनाकर उन्हें बचाया।
  • जब असुर और देवता अमृत के लिए समुद्र मंथन कर रहे थे, तब विष महासागर से बाहर निकला। तब शिव ने दुनिया को बचाने के लिए जहर पिया और यहां तक ​​कि सांपों ने महादेव के साथ मिलकर जहर का सेवन भी किया। तब शिव ने उनकी निस्वार्थ भक्ति से प्रसन्न होकर सांपों को आशीर्वाद दिया।
  • वासुकी सांप शिव के गले से जहर को शरीर में जाने की अनुमति नहीं देता है और शिव को अपने गले में रहने वाले विष से सुखदायक प्रभाव प्रदान करता है। जिस विष को गले में रोका गया, उसमें भगवान के गले में बहुत जलन थी। सर्प-रक्त वाली प्रजाति के सर्प वहां शीतलन प्रभाव प्रदान करते हैं।


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