दोनों ने ही एक दूसरे की सहायता की हैं ।
यदि शिव ने गले का सर्प वासुकि न दिया होता व विषपान न किया होता तो कुछ भी शेष न बचता इस सृष्टि मे । देव , दानव व मुनि कोई नहीं बचता । मंथन न होता व किसी को कुछ न मिलता । चंद्रमा को भी कही स्थान न मिलता । यहाँ तक की विष्णु को - शंख, कौस्तुभ मणि और लक्ष्मी की पुनः प्राप्ति न होती ।
यदि विष्णु ने देवों एवं दानवो को मंथन करने का सुझाव न दिया होता व मंदार पर्वत का भार अपने पीठ पर कूर्म अवतार मे न लेते, तो मंथन न होता । न ही विष निकलता और न ही उसे पीकर शिव नीलकंठ कहलाते । समुद्र से अर्धचंद्र न निकलता और उसे शीतलता प्रदान करने हेतु शिव के ललाट पर स्थापित न किया जाता । विष न पीते तो उनका शरीर का तापमान न बढ़ता और देवता गण उनके माथे पर चंद्रमा स्थापित न करते और शिव को जल व बेलपत्र चढ़ाने की परंपरा न शुरू होती । न ही सावन का पूरा महीना शिव को समर्पित होता ।
तो इन दोनों की सहायता के बिना, देवता व दानव भी मंथन न कर पाते । दोनों की भूमिका अहम थी ।